रोहतास दर्शन न्यूज़ नेटवर्क : भक्ति सिर्फ गंगा स्नान और मंदिर में पूजा करना ही नहीं है, बल्कि ईश्वर का भजन करना, सत्कर्म करना, पुत्र, पति, स्वामी, समाज एवं मानवता की सेवा करना भी भक्ति है। श्री जीयर स्वामी ने श्रीमद्भागवत कथा के तहत नैमिषारण्य प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा कि करीब छ: हजार वर्ष पूर्व वहाँ धर्म सम्मेलन हुआ था। शौनक ऋषि ने एक हजार वर्ष तक चलने वाला अनुष्ठान का आयोजन किया था। कलियुग में लम्बे अनुष्ठान का महत्व नहीं है, क्योंकि चूक एवं त्रुटि की संभावनाएं अधिक हैं। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु के द्रविड प्रदेश में भक्ति का जन्म हुआ, महाराष्ट्र में युवा हुई और गुजरात में वृद्धा हो गयी। उन्होंने कहा कि भगवान को प्राप्त करने का सरल तरीका भक्ति है। भगवान अपने भक्तों में अमीर, कुलीनता, वृद्ध, बालक, मनुष्य और जानवर का भेद नहीं करते। गरीब सुदामा, बालक प्रहलाद, माता सेवरी और गजराज पर कृपा करके वे संसार को भक्ति का संदेश दिये है। श्री स्वामी जी ने कहा कि जीवन में शुभ अशुभ कार्योका प्रतिफल अवश्य भोगना पड़ता है।

जाने अनजाने में अगर कोई पाप होता है तो संत के पास एवं तीर्थ में जाकर उसका मार्जन किया जा सकता है लेकिन तीर्थ और संतो के यहाँ किये गये अपराध का मार्जन संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि भक्ति और भगवान के आश्रय में रहकर सुकर्म करते हुए अपने अपराधों के प्रभाव को कम किया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। बारिश में छाता या बरसाती से आँधी में दिये को शीशा से बचाव किया जा सकता है, लेकिन बारिश एवं आँधी को रोका नहीं जा सकता है। भक्ति और सत्कर्म का प्रभाव यही होता है। प्रारब्ध या होनी का समूल नाश नहीं होता। प्रारब्ध का भोग भोगना ही पड़ता है। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रारब्ध अवश्यमेव भोक्तव्यम्। ईश्वर की भक्ति अथवा संत-सद्गुरू प्रारब्ध की तीक्ष्णता को कम किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के भाग्य में उसके पिछले जन्मों के कुकर्मो के कारण शूली पर चढ़ना लिखा है, तो इस जन्म के ईश्वर-भक्ति या गुरू की कृपा से प्रारब्ध की शूली शूल का रूप ले सकती है। प्रारब्ध को मिटाया नहीं जा सकता, उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है।

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