आर० डी० न्यूज़ नेटवर्क : 18 नवंबर 2023 : जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है। सफेद कपड़े में थोड़ी भी स्याही का दाग पड़नेसे वह दाग बहुत स्पष्ट दीखता है, उसी प्रकार पवित्र मनुष्योंका थोड़ा सा दोष भी अधिक दिखलायी देता है। जिस घर में नित्य हरि कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता। जब भगवान्के आश्रित हो रहे हो तो यह न हुआ, वह न हुआ आदि चिन्ताओं में मत पड़ो ।विश्वासी भक्त आजीवन भगवान्‌का दर्शन न मिलकर भी भगवान् को नहीं छोड़ता। संसार कच्चा कुआँ है । इसके किनारेपर खूब सावधानी से खड़े होना चाहिये। तनिक असावधान होते ही कुएँमें गिर पड़ोगे, तब निकलना कठिन हो जायेगा ।संसारी! तुम संसारका सब काम करो; किन्तु मन हर घड़ी संसारसे विमुख रखो ।कामिनी और कञ्चन ही माया है। इनके आकर्षणमें पड़नेपर जीवकी सब स्वाधीनता चली जाती है । इनके मोहके कारण ही जीव भव-बन्धनमें पड़ जाता है।संसारमॆ रहनेसे सुख-दुःख रहेगा ही ।

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ईश्वरकी बात अलग है और उसके चरण-कमलमें मन लगाना और है। दुःखके हाथसे छुटकारा पानेका और कोई उपाय है नहीं । साधु-संग करनेसे जीव का मायारूपी नशा उतर जाता है ।भगवान् का भजन ही जीवनका सुफल है।सुगम मार्गसे चलो और सुखसे राम-कृष्ण-हरिनाम लेते चलो। वैकुण्ठका यही अच्छा है।और समीपका रास्ता । जिस सङ्गसे भगवत्प्रेम उदय होता है वही सङ्ग सङ्ग है, बाकी तो नरकनिवास संतोंके द्वारपर श्वान होकर पड़े रहना भी बड़ा भाग्य है, क्योंकि वहाँ प्रसाद मिलता है और भगवान्का गुणगान सुननेमें आता है। कीर्तनका अधिकार सबको है, इसमें वर्ण या आश्रमका भेद-भाव नहीं । कीर्तनसे शरीर हरिरूप हो जाता है। प्रेमछन्दसे नाचोडोलो। इससे देहभाव मिट जायगा।हरिकीर्तनमें भगवान्, भक्त और नामका त्रिवेणी संगम होता है। प्रेमी भक्त प्रेमसे जहाँ हरिगुण-गान करते हैं, भगवान् वहाँ रहते ही हैं । तो कीर्तनसे संसारका दुःख दूर होता है । कीर्तन संसारके चारों ओर आनन्दकी प्राचीर खड़ी कर देता है और सारा संसार महासुखसे भर जाता है । कीर्तनसे विश्व धवलित होता और वैकुण्ठ पृथ्वीपर आता है ।

भगवान्के वचन हैं — मेरे भक्त जहाँ प्रेमसे मेरा नामसंकीर्तन करते हैं, वहाँ तो मैं रहता ही हूँ — मैं और कहीं न मिलूँ तो मुझे वहीं ढूँढ़ो । तेरा कीर्तन छोड़ मैं और कोई काम न करूँगा। लज्जा छोड़कर तेरे रंगमें नाचूँगा । कीर्तनका विक्रय महान् मूर्खता है । वाणी ऐसी निकले कि हरिकी मूर्ति और हरिका प्रेम चित्तमें बैठ जाय । वैराग्यके साधन बतावे, भक्ति और प्रेमके सिवा अन्य व्यर्थकी बातें कथामें न कहे । कीर्तन करते हुए हृदय खोलकर कीर्तन करे, कुछ छिपाकर- चुराकर न रखे । कीर्तन करने खड़े होकर जो कोई अपनी देह चुरावेगा, उसके बराबर मूर्ख और कौन हो सकता है।स्वाँग से हृदयस्थ नारायण नहीं ठगे जाते । निर्मल भाव ही साधन-वनका बसन्त है ।भगवान् भावुकोंके हाथपर दिखायी देते हैं, पर जो अपनेको बुद्धिमान् मानते हैं, वह मर जाते हैं तो भी भगवान्का पता नहीं पाते। ज्ञानके नेत्र खुलनेसे ग्रन्थ समझमें आता है, उसका रहस्य खुलता है, पर भावके बिना ज्ञान अपना नहीं होता। भावके नेत्र जहाँ खुले वहीं सारा विश्व कुछ निराला ही दिखायी देने लगता है।भगवान्से मिलन होनेके लिये भाव आवश्यक है।चित्त यदि भगवच्चिन्तनमें रँग जाय तो वह चित्त ही चैतन्य हो जाता है, पर चित्त शुद्ध भावसे रँग जाय तब । जैसा भाव वैसा फल । भगवान्‌के सामने और कोई बल नहीं चलता ।पत्थरकी ही सीढ़ी और पत्थरकी ही देव-प्रतिमा, परंतु एक पर हम पैर रखते हैं और दूसरेकी पूजा करते हैं। भाव ही भगवान् हैं। गङ्गा-जल जल नहीं है, बड़-पीपल वृक्ष नहीं हैं, तुलसी और रुद्राक्ष माला नहीं है, ये सब भगवान्‌के श्रेष्ठ शरीर हैं । भाव न हो तो साधनका कोई विशेष मूल्य नहीं ।

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