आर० डी० न्यूज़ नेटवर्क : 17 जनवरी 2024 : परमात्माका वाचक प्रणव है, उसका जप और उसके अर्थकी भावना करनी चाहिये । इससे आत्माकी प्राप्ति और विघ्नोंका अभाव होता है । परलोकमें सहायताके लिये माता-पिता, पुत्र- स्त्री और सम्बन्धी कोई नहीं रहते । वहाँ एक धर्म ही काम आता है। मरे हुए शरीरको बन्धु-बान्धव काठ और मिट्टीके ढेलोंके समान पृथ्वीपर पटककर घर चले जाते हैं। एक धर्म ही उसके साथ जाता है। मन, वाणी और कर्मसे प्राणिमात्रके साथ अद्रोह, सबपर कृपा और दान। यही साधु पुरुषोंका सनातन धर्म है। जो आत्मनिष्ठ हैं तथा जो आत्माके सिवा कुछ भी नहीं चाहते, वे विषयी मनुष्योंकी भाँति रमणीय वस्तुकी प्राप्तिमें हर्षित नहीं होते और दुःखरूप वस्तुकी प्राप्तिमें उद्विग्न नहीं होते। सोये हुए गाँवको जैसे बाढ़ बहा ले जाती है। वैसे ही पुत्र और पशुओंमें लिप्त मनुष्योंको मौत ले जाती है । जब मृत्यु पकड़ती है उस समय पिता, पुत्र, बन्धु या जातिवाले कोई भी रक्षा नहीं कर सकते। इस बातको जानकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह शीलवान् बने और निर्माणकी ओर ले जानेवाले मार्गको जल्द पकड़ ले ।

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भगवान्‌ की माया के दोष-गुण बिना हरिभजन के नहीं जाते, अतएव सब कामनाओं को छोड़कर श्रीराम को भजो । जो दिन आज है, वह कल नहीं रहेगा, चेतना है तो जल्दी चेत जा, देख मौत तेरी घातमें घूम रही है । श्रीरामके चरणोंकी पहचान हुए बिना मनुष्यके मनकी दौड़ नहीं मिटती, लोग केवल भेष बनाकर दर-दर अलख जगाते हैं, परंतु भगवान्‌के चरणोंमें प्रेम नहीं करते, उनका जन्म वृथा है । जो शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु और समाहित होता है, वही आत्माको देखता है और वही सबका आत्मरूप होता है । जिन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर – इन छः शत्रुओंको जीत लिया है, वे पुरुष ईश्वरकी ऐसी भक्ति करते हैं जिसके द्वारा भगवान्‌में परम प्रेम उत्पन्न हो जाता है । जैसे प्रवाहके वेगमें एक स्थानकी बालू अलग-अलग – बह जाती है और दूर-दूरसे आकर एक जगह एकत्र हो जाती है, ऐसे ही कालके द्वारा सब प्राणियोंका कभी वियोग और कभी संयोग होता है ।
सरलता, कर्तव्यपरायणता, प्रसन्नता और जितेन्द्रियता – तथा वृद्ध पुरुषोंकी सेवा — इनसे मनुष्यको मोक्षकी प्राप्ति होती है। जिससे सब जीव निडर रहते हैं और जो सब प्राणियोंसे निडर रहता है, वह मोहसे छूटा हुआ सदा निर्भय रहता है।
जो मनुष्य समस्त भोगोंको पा जाता है और जो सब भोगोंको त्याग देता है, इनमें सब भोगोंको पानेवालेकी अपेक्षा सबका त्याग करनेवाला श्रेष्ठ है ।

जो संग्रहका त्याग करके अपरिग्रहमें रत है, ऐसे चित्तके मलसे रहित हुए ज्ञानवान् पुरुष ही निर्वाणको प्राप्त होते हैं । जैसे अग्निके समीप रहनेवाले पुरुषका अन्धकार और शीत अग्निकी स्वाभाविक शक्तिसे ही दूर हो जाता है, वैसे ही पापी पुण्यात्मा जो कोई भी भगवान्‌को भजता है, वही उनकी महिमाको जानता है और वही शान्ति प्राप्त करता है । जब दृश्य नहीं है, तब दृष्टि भी कुछ नहीं है, दृश्यके बिना देखना कहाँ, दृश्यके कारण ही द्रष्टा और दर्शन हैं। काम, क्रोध, मद, लोभकी खान जब तक मनमें है, तबतक ज्ञानी और मूर्खमें क्या भेद है? दोनों एक समान ही हैं ।

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