अत्यधिक सम्पति और संसाधन के लिए न करें अपराध। भगवान की मूर्ति को अपलक निहारते हुए लगाएं ध्यान

आर० डी० न्यूज़ नेटवर्क : 13 अप्रैल 2022 : जीवन निर्वहन के क्रम में अपनी आवश्यकताओं को कम करते हुए न्यूनतम साधन एवं संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। इसी में स्वहित एवं राष्ट्रहित समाहित है। वस्तुओं का अत्यधिक मात्रा में उपयोग से उनका दुरूपयोग होता है, जिसका असर वंचित लोगों के साथ ही राष्ट्र के सर्वांगीण विकास पर भी होता है। समाज में असमानता के साथ द्वेष भी बढ़ता है। श्री स्वामी जी ने कहा कि खाली पात्र में ही जल या वस्तु डाली जा सकती है। भरे हुए पात्र में कुछ डालने पर वह गिरने लगता है। उसी तरह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को जरूर पूर्ति करनी चाहिए, लेकिन विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए अनीति अत्याचार से संसा न नहीं जुटाना चाहिए। समाज में ऐसे बहुत उदाहरण हैं, जब धनाढ्य बनने हेतु कुकर्मों के रिकार्ड बनाये गए लेकिन वही सम्पति अंततः अपयश एवं भारी दुःख का कारण बनी। प्रारम्भ में स्वयं को सुख प्रतीत होता है तथा दूसरे की नजरों में भी उदाहरण बनते हैं। लेकिन परिणाम के बाद स्वयं भारी कष्ट होता है और समाज के लोग हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। तृष्णा न जाये मन से, कृष्णा न आवे मन में।

स्वामी जी ने कहा कि संसार के नश्वर वस्तुओं का आवश्यकतानुसार सदुपयोग एवं संग्रह करना चाहिए। विलासिता के लिए ‘अति’ नहीं करनी चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत। जीवन के हर क्षेत्र में ‘अति’ की मनाही है। मानस में भी कहा गया है कि ‘अति से रगड़ करे जो कोई, अनल प्रकट चंदन ते होई।’ उन्होंने कहा कि चार भुजाधारी भगवान के रूप को अपलक निहारते हुए ध्यान करना चाहिए। जैसे माता का दूध पीते हुए बच्चा कभी-कभी दूध पीना छोड़कर माता को अपलक निहारने लगता है। स्वामी जी ने कहा कि मुक्ति पाँच तरह की होती है। भगवान के लोक में रहना सालोक्य मुक्ति, भगवान के पास रहना सामीप्य मुक्ति, भगवान के समान रूप बनाना सारूप्य मुक्ति, भगवान के समान सृष्टि का अधिकारी सासृष्ट मुक्ति और भगवान में अपने को विलय करना सायुज्य मुक्ति कहलाता हैं। इन मुक्तियों के अधिकारी भी भगवान के अधीन रहते हैं। भक्ति योगः जिस व्यवहार, आचरण और कर्म से भगवान के प्रति निष्ठा हो जाए वही भक्ति है।

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