गुरू सिद्ध होना चाहिए, चमत्कारी नहीं गलत ढंग से आयी लक्ष्मी उपद्रवकारी

आर० डी० न्यूज़ नेटवर्क : 30 नवम्बर 2022 : घर में उपद्रव करने वाली लक्ष्मी नहीं, बल्कि ऐसी लक्ष्मी चाहिए जो सुख-शांति और संतुष्टि प्रदान करें। लक्ष्मी का सदैव उपयोग करें उपभोग कदापि नहीं। अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मितव्ययिता से धन का प्रयोग धन का उपयोग है लेकिन विलासिता के लिए धन का अनुचित अपव्यय धन का उपभोग है। आज की जीवनशैली उपभोक्तावादी हो गई है, जिसके कारण भारतीय सामाजिक संरचना तितर-बितर हो गयी है। श्री जीयर स्वामी ने नैमिषारण्य में सूत–सौनक संवाद की चर्चा करते हुए कहा कि जिस व्यक्ति पर संत कृपा करते हैं, वह संसार का हो जाता है। सूत जी से ऋषियों ने प्रश्न किया कि सभी ग्रंथों के बाद भागवत की क्या आवश्यकता है? इस पर सूत जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि दूध से धी बनता है, लेकिन दूध से घी का काम नहीं होता। आम के वृक्ष से फल प्राप्त होता है, लेकिन पेड़ से फल का आनंद प्राप्त नहीं होगा। इसी तरह वेद का सार है भागवत । भागवत वेद रुपी कल्प वृक्ष का पक्का हुआ फल है। इस पर सभी का अधिकार है। कालान्तर में भगवान द्वारा लक्ष्मी जी को भागवत सुनाया गया। लक्ष्मी जी ने विश्वकसेन को, विश्वकसेन ने ब्रह्माजी, ब्रह्मा जी ने सनकादि ऋषि, सनकादि ऋषियों ने नारद जी, नारद जी ने व्यास जी, व्यास जी ने शुकदेव जी और शुकदेव जी ने सूत जी को सुनाया। बच्चा, बूढ़ा युवा और स्त्री सहित सभी वर्ग और धर्म के लोग इसका रसपान कर सकते हैं।

उन्होंने कहा कि गलत तरीके से आयी लक्ष्मी उपद्रवकारी होती हैं। इन्हें संभालना मुश्किल होता है। लक्ष्मी का सदैव सदुपयोग होना चाहिए। जिस परिवार और समाज में लक्ष्मी का उपभोग होने लगता है। वहाँ एक साथ कई विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अंततः वह पतन का कारण बनता है। स्वामी जी ने कहा कि आषाढ़ पूर्णिमा को व्यास जी का अवतरण हुआ था। इसीलिए इस तिथि को गुरु-पूर्णिमा मनाने की परम्परा है। व्यास जी को नहीं मानने वाले भी गुरु-पूर्णिमा मनाते हैं।

स्वामी जी ने कहा कि गुरु सिद्ध होना चाहिए, चमत्कारी नहीं। जो परमात्मा की उपासना और भक्ति की सिद्धि किया हो, वही गुरु है। गुरु का मन स्थिर होना चाहिए, चंचल नहीं। वाणी-संयम भी होनी चाहिए। गुरु समाज का कल्याण करने वाला हो और दिनचर्या में समझौता नहीं करता हो। गुरू भोगी-विलासी नहीं हो। उन्होंने कहा कि गुरु और संत का आचरण आदर्श होना चाहिए। जिनके दर्शन के बाद परमात्मा के प्रति आशक्ति और मन में शांति का एहसास हो, वही गुरु और संत की श्रेणी में है। गुरु दम्भी और इन्द्रियों में भटकाव वाला नहीं होना चाहिए। गुरु सभी स्थान व प्राणियों में परमात्मा की सत्ता स्वीकार करने वाला हो।

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