सदाचार से रहने वाला गृहस्थ भी ब्रह्मचारी
रोहतास दर्शन न्यूज़ नेटवर्क : मोहनिया: केवल विवाह नहीं करने वाला ही ब्रह्मचारी नहीं हैं, बल्कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी एक नारी के परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपने सुकर्मों को समपित करने भी ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचारी ही दुनिया में सुख-शांति से जीने का अधिकारी है। श्री जीयर स्वामी जी ने कहा कि सदाचार से जीना, सात्विक भोजन करना, परोपकार एवं दया की भावना रखना, सरलता आदि सभी अच्छ आचरण एवं कर्म ब्रह्मचारी के लक्षण हैं उन्होंने विस्तार से प्रकाश डालत हुए कहा कि संस्कारित ढंग से विवाह के बंधन में बंधकर अपनी पत्नी साथ गृहस्थ जीवन का पालन करना भी ब्रह्मचर्य कहा जाता है। स्वामी जी ने कहा कि मनुष्य को 25 साल के बाद 50 वर्ष की आयु तक समर्पित रुप में जीवन जीना अपने आप में ब्रह्मचर्य है। सामाजिक बंधन की चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा कि अपनी पत्नी के बाद समान उम्र की नारी को बहन, छोटी उम्र की बेटी या बड़े उम्र की नारी को माँ के रुप में स्वीकार करना भी ब्रह्मचारी के लक्षण हैं। उन्होंने नारी की महत्ता अंकित करते हुए कहा कि स्त्रियाँ जगत की संस्कृति है। स्त्रियाँ सृजक एवं पालक दोनों होती हैं। आज जो भी योगी, संन्यासी और बड़े लोग देखे-सुने जाते हैं, वे सब उन्हीं माताओं की देन हैं अन्यथा संसार महापुरुषों से शून्य हो जाता। इसलिये स्त्रियों को विशेष आचरण युक्त जीवन जीना चाहिये। किसी उपलब्धि के लिये यथोचित प्रयास की जरुरत बतलाते हुए उन्होंने कहा कि सिर्फ कामना और याचना से लक्ष्य पाना संभव नहीं है। यह स्थिति सिर्फ बाल्यकाल में ही उचित है बालक रोकर ही अभिभावकों से अपनी हर कामना पूर्ति कराने का प्रयास करता है, लेकिन बाल-काल के बाद इस विधि से किसी चीज की प्राप्ति की कामना नहीं करे। व्यक्ति को लक्ष्य के स्वरूप के अनुकूल ही प्रयास करना पड़ता है। यदि लक्ष्य ऊँचा है तो उसके लिए असाधारण प्रयास करना पड़ेगा। मानव जीवन में आत्मा या परमात्मा की उपलब्धि सर्वोच्च उपलब्धि है। इसके लिए मनुष्य को कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है। सदगुरू की कृपा से इस दुर्लभ लक्ष्य की प्राप्ति सुगम हो जाती है। आज के भौतिक युग में आर्थिक उपलब्धि को ही महान उपलब्धि लोग मानते हैं। लेकिन आध्यात्मिक उपलब्धि की तुलना में अर्थोपलब्धि नगण्य है। आध्यात्मिक पुरुष के पीछे लक्ष्मी स्वयं लग जाती है। श्री जीयर स्वामी जी ने कहा कि व्यास जी स्वलिखित भागवत के प्रचार प्रसार के प्रति चिंतित थे। उन्होंने निर्णय किया कि भगवान कथा में भगवान आते है तो भागवत के श्लोकों के माध्यम से सुखदेख जी को अपने आश्रम से लौटने को मजबूर कर दिये। उन्होंने कहा कि सामाजिक जीवन में पिता को भी समयानुसार अपनी विरासत पुत्र को सौप देनी चाहिये।