स्वामी जी ने प्रवचन के दौरान कहा कि संतान उत्पत्ति करना गृहस्थ का एक धर्म है। शास्त्र में कहा गया है कि जैसी सन्तान की इच्छा हो वैसी मनःस्थिति में गृहस्थ को संतान प्राप्ति के लिए आवश्यक गृहस्थ धर्म करना चाहिये। जिस मनःस्थिति में पुरुष स्त्री के साथ संतान की कामना करता है उसी तरह की प्रवृत्ति वाली संतान होता हैं। माताओं (नारियों) को अशुद्धि की अवस्था(रजस्वला) होने के चार दिन तक सन्तान के लिए अपने पति से सन्तान प्राप्ति का धर्म नहीं करना चाहिए एवं पाँचवें दिन पति से सम्बंध करने से गर्भाधान होने पर कन्या होगी। छठवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर पुत्र होगा। सातवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर कन्या होगी। आठवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर पुत्र होगा। नौवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर कन्या होगी। दसवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर पुत्र होगा। ग्यारहवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर कन्या होगी और वह कन्या कुलटा और व्यभिचारिणी होगी। बारहवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर पुत्र होगा। तेरहवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर कन्या होगी, जो युवा होने पर भ्रष्ट आचरण वाली अवैध रूप से वर्णसंकर संतान पैदा करेगी।चौदहवें दिन के संबंध से गर्भाधान होने पर लड़का होगा। पन्द्रहवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर राजयोग प्राप्त करनेवाली कन्या होगी। सोलहवें दिन के सम्बन्ध से गर्भाधान होने पर राजयोग वाला पुत्र पैदा होगा। अतः स्त्री-पुरुष को सन्तान प्राप्ति हेतु ग्यारहवें एवं तेरहवें दिन गर्भाधान नहीं करना चाहिए, अन्यथा संतान पापी और व्यभिचारी होती है।
माता की कुक्षि या कोख यज्ञाग्निकुंड है। सात्विक प्रवृत्ति से गर्भाधान सम्बन्ध के समय सात्विक वृत्ति में होकर किए गए स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध से सात्विक संतान पैदा होती है। राजसी तथा तामसी वृत्ति में हुए सम्बन्ध से राजसी या तामसी सन्तान की उत्पत्ति होती है। माता की कुक्षि या कोख या पेट में अगर सन्तान दाहिनी तरफ रहे, तो वह पुत्र होता है तथा बायीं तरफ हो, तो पुत्री होती है। परंतु, खान-पान, व्यवहार, रोग, पेट के वायु दोष के कारण उपरोक्त नियम से अन्तर परिणाम भी देखने को मिलता है।
