जड़ और चेतन दोनों के अपने-अपने धर्म हैं, धर्म सिर्फ दिखावा नहीं, प्रैक्टिकल होना चाहिए|

रोहतास दर्शन न्यूज़ नेटवर्क : पहथु में प्रवचन करते हुए श्री जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा की दुनिया धर्म पर टिका है। जड़ और चेतन दोनो का अपना-अपना धर्म होता है। धर्म हमारे जीवन को मर्यादित बनाता है। मानव अपने धर्म से विमुख हो जाए तो संसार का संचालन रूक जायेगा।उन्होंने भागवत कथा में जी द्वारा धर्म की व्याख्या की चर्चा करते हुए कहा कि सूत जी के अनुसार र्म मानव जीवन की सीढ़ी है। श्री स्वामी जी ने कहा कि धर्म से अभिप्राय सिर्फ पूजा-वंदना नहीं। जो जिस निमित्त है, उसके द्वारा संबंधित कार्य का संपादन ही धर्म है। संसार का संचालन धर्म के आधार पर ही हो रहा है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि माईक आवाज देना, वल्ब प्रकाश देना, पंखा हवा देना और मानव ईमानदारी पूर्वक अपना दायित्व निर्वहन करना छोड़ दे, तो उन्हें धर्म से विचलित माना जाएगी। फिर इनका कोई महत्व नहीं रह जाएगा धर्म या स्वभाव के कारण ही वस्तुओं एवं प्राणियों का वजूद है। केवल भोजन, शयन एवं संतानोत्पत्ति करना मानव धर्म नहीं है। सभी योनियों में मानव जीवन ही धर्म एवं संस्कृति के लिए है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन-ये चार बातें मनुष्य और अन्य जीवों में सामान्य रूप से विद्यमान होते हैं। मनुष्य में एक गुण ऐसा है, जो मानवेतर जीवों में नहीं पाया जाता है। वह है धर्म। धर्म मानव का विशेष गुण है, जिसके कारण वह पशु से भिन्न है। शेष भोग भोगने के लिए संसार में आते हैं। धर्म हमारे जीवन की वह पद्धति है, जिसके अनुपालन से पतन रूक जाता है और मनुष्य पावन हो जाता है। धर्म केवल दिखावा के लिए नहीं, बल्कि व्यवहार और आचरण में भी दिखनी चाहिए। सूत जी ने कहा है कि अट्ठारह पुराणों में दो बातों का महत्व विशेष है। परोपकार से बड़ा कोई धर्म व पुण्य नहीं और अकारण किसी को दंड देने से बड़ा कोई पाप नहीं।

कहा भी गया है:- ‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनम् द्वयम् परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्।’

यानी अट्ठारह पुराण में महर्षि व्यास ने मुख्य रूप से दो ही बातें कही हैं परोपकार पुण्य है और दूसरे को पीड़ा पहुँचाना पाप है। जो दूसरे का पीड़ा समझे, उससे बड़ा वैष्णव नहीं। पीड़ित के प्रति दया, गरीब कन्या का विवाह और गरीब बच्चे को शिक्षा देना परोपकार है। उन्होंने कहा कि भोग के अंतिम ऊँचाई पर पहुँच कर भी शांति प्राप्त नहीं होती। मृत्यु के बाद पत्नी सिर्फ द्वार तक, परिजन श्मशान तक और पुत्र, जिसके लिए धर्म गवां दिया जाता है, मुखाग्नि देने तक रहता है। जीव का धर्म ही साथ जाता है। यदि वर्तमान में कोई व्यक्ति अच्छे आचरण के नहीं होने के बावजूद सांसारिक वैभव से पूर्ण है, तो उसका पहले का पुण्य है। संत-महात्मा हंसते हुए मरते हैं, लेकिन सामान्य आदमी हाय-हाय कर मरता है। मृत्यु एक यात्रा है। इसे मंगल बनाना चाहिए।

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