धर्म का निर्माण नहीं होता, वह नित्य है
रोहतास दर्शन न्यूज़ नेटवर्क : 05 जून 2021 : मनुष्य को कर्मवादी होना चाहिए, भाग्यवादी नहीं भाग्य स्वतंत्र नहीं होता। यह मनुष्य के कर्मों का फल होता है। जिस तरह जल नहीं रहे तो तरंग और फेन का अस्तित्व नहीं, उसी तरह कर्म के बिना भाग्य का निमार्ण नहीं हो सकता। मनुष्य अपने सुख-दुख का कारण स्वयं है। वर्तमान के कर्म ही भविष्य में प्रारब्ध बनकर भाग्य रचते हैं। “नहीं कोई सुख-दुख कर दाता, निज कृत्त कर्म भोग सुनु भ्राता।” उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने चंदवा चातुर्मास्य यज्ञ में प्रवचन करते हुए कही।श्री जीयर स्वामी ने श्रीमद भागवत महापुराण कथा के तहत प्रहलाद जी द्वारा प्रजा को दिए गए उपदेश की चर्चा की।
उन्होंने कहा कि भगवान पक्षपात नहीं करते। ये निष्पक्ष हैं। जिसमे पक्षपात आ जाये वह भगवान नहीं देवता हो सकता है। जब राक्षस साधना द्वारा बल प्राप्त करके देवाताओं पर अत्याचार करते हैं तब भगवान राक्षसों का दमन करते हैं। यदि भगवान पक्षपाती होते तो विमलात्मा, संत, साधु और सज्जन निरंतर उनका स्मरण जप-तप नहीं करते। भगवान ही एक मात्र ध्येय, ज्ञेय, प्रेय और श्रेय हैं। हम शरीर शुद्धि के लिए भगवान का ही नाम स्मरण करते हैं। भगवान का लक्ष्य मर्यादित जीव की रक्षा और अमर्यादित जीव का नाश करना है।स्वामी जी ने कहा कि धर्म निर्माण नहीं किया जाता, वह सृष्टि के साथ उत्पन्न होता है। धर्म को मानव जीवन से हटा दिया जाय तो जीवन को कोई महत्व नहीं रहा जाता। इसलिए धर्म कभी भी किसी भी परिस्थिति में त्याज्य नहीं है। पूरे विश्व में लगभग चार हजार पंथ हैं। धर्म के एक-दो सिद्धान्त को लेकर अपने अनुसार परोसना ही पंथ है। भगवान के लय-पूजा और साधना से जो अच्छाईयाँ प्राप्त होती हैं उनको समाज में लिपिबद्ध कर परोसना और समझाना ही दर्शन कहा जाता है।
श्री जीयर स्वामी ने कहा कि मनुष्य जन्म के साथ ही तीन ऋणी मातृ-पितृ ऋण ,ऋषि ऋण एवं देव ऋण से बंध जाता है।उन तीनों ऋणों से उऋणहोने का यत्न करना चाहिए। माता-पिता के प्रति आदर, उनकी सेवा एवं मृत्यु के बाद पितरों-देवताओं की पूजा करनी चाहिए। इसके लिये पितृ पक्ष बना हुआ है। पितृ पक्ष के बाद देव पक्ष आता है। अर्थात पहले माता-पिता और पितरों की सेवा के बाद देव सेवा करनी चाहिए। ऋषि ऋण से ऊऋण होने के लिये यज्ञ, पूजा, हवन एवं भंडारा आदि करना चाहिए। जो व्यक्ति स्वयं के बारे में ही सोचता एवं स्वयं के लिए ही करता है वह स्वभाव से कुत्ता सियार ही है। बलि का अर्थ त्याग करना और दूसरे को भोजन कराना है। जिस पंथ में हिंसा की स्वीकृति हो, वह धर्म नहीं से सकता। मानव जीवन के सभी सुकृत्यों का एकमात्र लक्ष्य भगवान के प्रति अनुराग, लगाव और समर्पण ही है।
शास्त्रों में तामसी, राजसी और सात्विक आहार की बातें कहीं है तामसी और राजसी भोजन करने से शरीर द्वारा अपचार होता है। इस लिए भोजन सात्त्विक होना चाहिए। यदि भोजन सात्विक नहीं हो तो विचार भी सात्त्विक नहीं होगा। “जैसा अन्न वैसा मन” । द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह का मौन रहना दुर्योधन के राजसी भोजन का ही परिणाम था। स्वामी जी ने कहा कि उच्च कुल की महिलाओं की मुस्कान (हंसी) में रहस्य छिपा होता है। भद्र महिलायें कभी भी अकारण नहीं मुस्कुराती । भोजन शुद्ध नहीं होगा तब तक हमारा अंतः करण शुद्ध नहीं होगा। यदि अंत: करण शुद्ध नहीं हुआ तो भगवान में समर्पण संभव नहीं। गोबरछत्ता का सब्जी नहीं खानी चाहिए। इसकी सब्जी खाना मांस खाने के बराबर है।जब कोई अपनी नैतिकता का त्याग करता है, तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है, जिससे समाज और राष्ट्र का नुकसान होता है। भीष्म पितामह ने कहा कि 58 दिनों तक वाण शैय्या पर पड़ रहना दुर्योधन जैसे पानी के अन्न ग्रहण करने का प्रभाव है,हमारे विचार इतने गिरे कि मैं द्रोपदी का अपमान देखता रहा और कौरवों का विरोध नहीं किया। वहीं द्रौपदी की रक्षा करना ही धर्म था जिसका निर्वाह मैने नहीं किया।
स्वामी जी ने कहा कि दोनों हाथों से सिर खुजलाने से दरिद्रता आती है। और अंतिम रोटी नहीं खानी चाहिए। सुबह और शाम सूर्य का दर्शन नहीं करना चाहिए। इससे बीमारीी आने का भय रहता है। मिट्टी के बर्तन का उपयोग एक बार ही करना चाहिए।स्वामी जी ने कहा कि विषम परिस्थिति से निवृति हो जाने को मुक्ति कहते हैं और निरंतर आवागमन से मुक्ति अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से निवृत हो जाना ही मोक्ष है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ देना ही योग है। मोक्ष के प्रमुख साधन राग, द्वेष, लोभ, शोक, भय, अहंकार, अपमान, निंदा, हिंसा, कपट एवं मोह निद्रा का त्याग है।
