प्रवचन करते हुए श्री जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि

पत्नी को छोड़ने वाला, घर को छोड़ने वाला, परिवार को छोडने वाला हो सकता है कभी परिवार, घर पत्नी पर स्नेह मोह आ भी सकता है। लेकिन अपने परिवार में रहते हुए परमात्मा से अपना जीवन जोड़ते हैं तो कहीं भटकने की गुंजाइश नही रहती है। यही गृहस्थ के लिए सबसे श्रेष्ठ है। सबसे सरल और सहज उपाय है परिवार पत्नी बाल बच्चे में अपने आप स्थित होते हुए घर में परमात्मा की सत्ता मान करके, परमात्मा के कारण मान करके, परमात्मा के आज्ञा मान करके उनके साथ रहें।

परमात्मा की कथा का श्रवण करने से चंचल मन भी गलत मार्ग पर नही जाता।

वह परमात्मा जो पुरे दुनिया में हैं। पुरे दुनिया की स्थिति में हैं ऐसे को जान करके उनके नाम, गुण, लीला, धाम तथा उनके चरित्र को सुनिए। सबसे पहले सुनिए, फिर कीर्तन करीए, स्मरण करीए तब उनके गुणों को अपने हृदय में उतारीए। उतारने से एक दिन कितना ही चंचल मन होगा गलत मार्गों की ओर नही जाएगा। अच्छे मार्गों पर उसकी सत्ता उसका मन हो जाएगा। कब जब बार बार परमात्मा के चरित्रों को सुनेंगे तब। हर जगह यह बात बताई गई है श्रवण भक्ति की यह बात बताई गई है यदि सुनने से हमारे किसी भी स्थिति का निराकरण होगा, इसलिए सुनना चाहीए, पीना चाहिए क्योंकि हो सकता है सुन करके विस्मरण हो जाते हैं। भूल जाते हैं। लेकिन कर्णरूपी प्याला से ऐसा पीयो की भीतर बैठ जाए।

  जीवों के कल्याण के लिए अविद्या का करें त्याग।

सत्य क्या है असत्य क्या है इस पर विचार करके सत्य मार्गों की तरफ, सद्मार्गों की तरफ प्रवृत होना, और असद् मार्गों से निवृत्त होना ही विद्या है। कौन ऐसा व्यक्ति है जो धर्म अधर्म को नही जानता है। कुछ न कुछ सब लोग जानते हैं। एक गीरा हुआ व्यक्ति भी जब अपनी बेटी का कन्यादान करता है तो उसकी आंखो से आंसू के एक बुंद गीर ही जाता है। वही व्यक्ति दुसरे के बेटी को गलत नजरों से देखता है। उसको ये समझ में आता है कि अपनी बेटी है मर्यादा के साथ रहना चाहिए। क्या वह व्यक्ति जानता नही है कि क्या धर्म है क्या अधर्म है। यदि नही जानता तो दुसरो को बेटी पर गलत निगाह डालता तो पहले अपने बेटी के साथ करता। तब माना जाता कि वह धर्म अधर्म नही जानता। जैसे की एक हत्या करने वाला व्यक्ति अपने बेटे को अपने से दूर अलग रखता है क्योंकि वह चाहता है की उसका बेटा हिंसा न करे। इसी का नाम है विद्या अविद्या। सबसे पहले अविद्या का त्याग करना। हमारे जीवन में कहीं भी किसी कारण से कोई ऐसा स्थित हमारे जीवन में हो रही हो, कोई कारण, कोई कर्म ऐसा हो रहा हो जिससे समाज, संस्कृति, राष्ट्र, व्यक्ति, परिवार को किसी न किसी प्रकार से नुकसान पहुंच रहा हो, हानि पहुंच रहा हो उस कारण को त्यागना यहीं अविद्या का त्याग है। विद्या का मतलब जिससे समाज राष्ट्र की भला हो। उससे अपने जीवन से चलना ही विद्या का स्वीकार है।

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